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Friday, June 5, 2009

पर्यावरण दिवस 5 जून, 2009 पर विशेष


पर्यावरण और हमारा भविष्य

"आपकी धरती को आपकी जरूरत है, जलवायु में बदलाव रोकने के लिए एक हो जाइये।"

जलवायु परिवर्तन के प्रमुख कारक कार्बन डाई आक्साइड अर्थात ग्रीन हॉउस गसों की अधिक मात्रा से धरती का तापमान निरंतर बढ़ रहा है। तापमान के बढ़ने का असर भी अब स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा है। जंगल लगातार घट रहे हैं। पिछले वर्ष स्टेट ऑफ़ फॉरेस्ट रिपोर्ट के अनुसार पेड़ों के तेजी से कटान के कारन लगभग ७२८ स्क्वेयर किलोमीटर जंगल समाप्त हो चुके हैं। भारत में घने जंगलों का प्रतिशत मात्र १.६६ रह गया है।वनों की सघनता के तेजी से समाप्त होने के कारन भारत में जंगलों को बचने के लिए राष्ट्रीय वन निति बनाई गई है। इस नीति के अनुसार भारत की पूरी ज़मीन में से ३३ % वनों के लिए रिज़र्व करने का लक्ष्य है। इतने बड़े लक्ष्य को हम तभी प्राप्त कर सकते हैं जब वातावरण में से कार्बन की मात्रा अति शीघ्र कम की जाए। इसमें कोई शक नहीं कि जलवायु परिवर्तन इकीस्वीं सदी की सबसे बड़ी चुनोती है।


आज प्रकृति का निरंतर बदलता स्वरूप सदियों से मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ की गयी निर्मम छेड़खानी तथा क्रूर व्यवहार का परिणाम है । मनुष्य ने अपने स्वार्थ में अंधे हो कर जीवनदयानी और जीवन-पोषक प्रकृति के प्रमुख तत्वों जल, वायु तथा ऊर्जा से स्वयं को वंचित कर लिया है। बढ़ती ग्रीन हॉउस गसों ने वायु-मंडल से आक्सीजन को तेज़ी से कम करना शुरू कर दिया है। इस वायुमंडलीय परिवर्तन को ग्लोबल वार्मिंग का नाम दिया गया है । आज ग्लोबल वार्मिंग ने संसार के सभी देशों को अपनी चपेट में लेकर प्राकृतिक आपदाओं --भूकंप, अतिवृष्टि से बाढ़, भूस्खलन, अल्पवृष्टि से सूखा, तूफान, ग्लेशियरों का पिघलना आदि का उपहार देना प्रारंभ कर दिया है । प्राकृतिक आपदाओं के रूप यह हमारे ही भविष्य का मानचित्र हैं। पर्यावरण के इस तेज़ी से बदलते मिजाज़ के कारन आज विश्व का प्रत्येक नागरिक बल्कि प्रत्येक प्राणी प्रभावित हो रहा है। इसलिए आज इस प्राकृतिक आपदा के लिए विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर कमर कस के आगे आना ही होगा।


यह सच है कि हमारे देश में परम्परा गत जीवनमूल्यों के चलते अभी भी हम पूरे विश्व के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करने में सक्षम हैं। हमारे देश में अभी पश्चिम की उपभोक्तावादी जीवनशेली का प्रभाव उतना नहीं पड़ा है जितना देश और देशवासियों के लिए घातक हो। हिंदूबहुल इस देश में अभी भी लोग शाकाहार के बड़े हिमायती हैं। मांसाहारी लोगों का प्रतिशत हमारे यहाँ विश्व के अन्य देशों के मुकाबले नगण्य ही है। साथ ही हमारे देश में लोग अभी मांसाहार में भी 'कुछ भी खा जाने वाले' अतिवादी तो हरगिज़ नहीं हैं। इसके आलावा भारत में प्रकृति से लोगों का सीधा जुडाव इसके अधिसंख्य गावों देहातों में पूर्ववत बना हुआ है। ये सारे सकारात्मक रुझान कई बार वैश्विक सर्वेक्षणों में सामने आते रहे हैं। नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी के हाल के एक सर्वेक्षण में यह खुलासा हुआ है। इस सोसायटी के ग्रीन इंडेक्स में भारत को पहला स्थान मिला है। लेकिन साथ ही इस बात से भी आगाह किया गया है कि आने वाले समय में भारत को उपभोक्ता बाज़ार के रूप में विश्व की बड़ी बड़ी कम्पनियाँ अपना सबसे बड़ा लक्ष्य मान कर उसके परंपरागत जीवनमूल्यों के लिए सबसे बड़ी चुनोतियाँ बन जाएँगी। यदि भारत के लोगों के सोच में भी वे पश्चिम के उपभोक्तावाद का ज़हर घोलने में सफल हो जाते हैं, तो विश्व को प्रकृति के इस निरंतर क्षरण से कोई शक्ति नहीं रोक सकती। ...अफ़सोस इस बात का है कि हमारी नई पीढी इस उपभोक्तावाद के चुंगल में तेज़ी से फंसती भी जा रही है। नए तकनिकी अविष्कारों का आकर्षण और उन्हें खरीद पाने की क्षमता उन्हें इस दलदल में धकेल रही है। साथ ही अपने परंपरागत जीवनमूल्यों के बारे में जानने का भी कोई ख़ास आकर्षण उनमें नहीं बचा है।

सच है कि परम्परा के साथ आधुनिकता का भी सहज आकर्षण होता है। नयी तकनीकों के प्रति आकर्षण और उन्हें अपनाने की ललक मनुष्य में स्वाभाविक रूप से होती ही है। लेकिन इस बारे में पूरी समझ होते हुए कि आने वाले समय में इन सब के मिले-जुले प्रभाव से हमें क्या नुकसान होने वाला है, हम तात्कालिक रूप से बड़े से बड़ा जोखिम उठाने से भी नहीं बचना चाहते। हमें पता है कि मोबाईल के लाभ के साथ क्या क्या नुकसान हैं, हमें पता है कि दूसरी तकनीकों के लिए हम निरंतर क्या कुछ खोते चले जा रहे हैं, लेकिन हम सोचते हैं कि एक अकेले मेरे करने से क्या घट-बढ़ जाएगा। इसके लिए हम सरकार को भी बड़ा दोषी सिद्ध करना चाहते हैं।
वास्तव में आज हम नयी पीढी को भी इसके लिए दोष नहीं दे सकते क्यों कि कहीं न कहीं इसमे पिछली पीढी की भी महत्व पूर्ण भूमिका रही है। आज की पीढी को तो आने वाली पीढी के लिए जवाबदेह ठहराया जाएगा। क्या यह श्रंखला इसी प्रकार चलती रहेगी।

भारत को उसके आदर्श जीवन मूल्यों के कारन ही विश्व गुरु की उपाधि दी जाती रही है। इधर पुनः इस प्रकार की भविष्यवानिया होती रही हैं कि भारत फ़िर एक बार विश्व के सामने एक उच्च आदर्श प्रस्तुत करके अपना वह जगद्गुरु का पद पुनः प्राप्त करेगा। इस बात का हम सभी भारत वासियों को गौरव होना चाहिए । साथ ही हमें भरसक प्रयास करने चाहियें कि हम विश्व के भविष्य के लिए सबसे बड़ी चुनोती - पर्यावरण के संतुलन के लिए आज से ही आगे आयें। क्यों कि पर्यावरण के भविष्य पर ही आज हम सब का, पूरे विश्व का भविष्य टिका है।