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Tuesday, May 17, 2022

Monday, October 18, 2010

Release of "MAHAAMAARGA : Vedanta the Highway" 1st Year-book- 2010 of Vedant Mandalam Trust on 17 Sept. 2010 By Shri Vijay Vijan, Dr. Karan Singh & Swami Jitatmanand

Thursday, June 25, 2009

वेदान्त मण्डलं को शंकराचार्य जी का आशीर्वचन

HDH Jagadguru Shankaracharya Shri Madhwashram ji Maharaj Shri Vijay Vijan with HDH Jagadguru Shankaracharya Shri Madhwashram ji Maharaj
Shri Vijay Vijan with Swami Asanganand Ji Maharaj
Shri Vijay Vijan with Swami Premanand ji Maharaj Shri Vijay Vijan With Swami Sachidanand Saraswati

ब्रह्मलीन श्रीमत्स्वामी हरिहर तीर्थ जी महाराज का अस्सीवाँ निर्वान महोत्सव दिनांक २५ जून, २००९ को श्री हरिहर कैलास तीर्थ, उत्तम नगर, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। इस अवसर पर देश भर के वेदान्ताचार्य महामंडलेश्वर कार्यक्रम में विराजमान थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता अनंत श्री विभूषित ज्योतिष्पीठाधीश्वर शंकराचार्य माधवाश्रम जी महाराज ने की। महामंडलेश्वर श्रीमत्स्वामी असंगानंद सरस्वती जी महाराज कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। समस्त विद्वद वृन्द ने अपने संस्मरणात्मक सदुपदेशों के मध्यम से ब्रह्मलीन महाराज श्री श्री के प्रति अपनी हार्दिक श्रधांजलि अर्पित की। इस विशेष अवसर पर वेदान्त मण्डलं पत्रिका के संस्थापक संपादक श्री विजय विजन ने पूज्य शंकराचार्य माधवाश्रम जी महाराज से एवं अन्य वेदंताचार्यों से भेंट की तथा वेदान्त मण्डलं पत्रिका की कुछ प्रतियाँ भी उन्हें अर्पित कीं। परम पूज्य शंकराचार्य जी ने वेदान्त मण्डलं की प्रशंसा करते हुए उसे अपने आशीर्वाद प्रदान किए। अनेक विद्वानों, वेदंताचार्यों ने भी वेदान्त मंडलम द्वारा समाज के प्रति की जा रही सेवाओं के लिए साधुवाद के शब्द कहे। इस अवसर पर श्री विजन के साथ वेदान्त मंडलम के वरिष्ठ सहयोगी लेखक प्रोफेसर सोमदत दीक्षित, सामाजिक कार्यकर्त्ता श्री गोपाल कृष्ण अग्रवाल एवं श्री प्रभाकर भी उपस्थित थे।



Friday, June 5, 2009

पर्यावरण दिवस 5 जून, 2009 पर विशेष


पर्यावरण और हमारा भविष्य

"आपकी धरती को आपकी जरूरत है, जलवायु में बदलाव रोकने के लिए एक हो जाइये।"

जलवायु परिवर्तन के प्रमुख कारक कार्बन डाई आक्साइड अर्थात ग्रीन हॉउस गसों की अधिक मात्रा से धरती का तापमान निरंतर बढ़ रहा है। तापमान के बढ़ने का असर भी अब स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा है। जंगल लगातार घट रहे हैं। पिछले वर्ष स्टेट ऑफ़ फॉरेस्ट रिपोर्ट के अनुसार पेड़ों के तेजी से कटान के कारन लगभग ७२८ स्क्वेयर किलोमीटर जंगल समाप्त हो चुके हैं। भारत में घने जंगलों का प्रतिशत मात्र १.६६ रह गया है।वनों की सघनता के तेजी से समाप्त होने के कारन भारत में जंगलों को बचने के लिए राष्ट्रीय वन निति बनाई गई है। इस नीति के अनुसार भारत की पूरी ज़मीन में से ३३ % वनों के लिए रिज़र्व करने का लक्ष्य है। इतने बड़े लक्ष्य को हम तभी प्राप्त कर सकते हैं जब वातावरण में से कार्बन की मात्रा अति शीघ्र कम की जाए। इसमें कोई शक नहीं कि जलवायु परिवर्तन इकीस्वीं सदी की सबसे बड़ी चुनोती है।


आज प्रकृति का निरंतर बदलता स्वरूप सदियों से मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ की गयी निर्मम छेड़खानी तथा क्रूर व्यवहार का परिणाम है । मनुष्य ने अपने स्वार्थ में अंधे हो कर जीवनदयानी और जीवन-पोषक प्रकृति के प्रमुख तत्वों जल, वायु तथा ऊर्जा से स्वयं को वंचित कर लिया है। बढ़ती ग्रीन हॉउस गसों ने वायु-मंडल से आक्सीजन को तेज़ी से कम करना शुरू कर दिया है। इस वायुमंडलीय परिवर्तन को ग्लोबल वार्मिंग का नाम दिया गया है । आज ग्लोबल वार्मिंग ने संसार के सभी देशों को अपनी चपेट में लेकर प्राकृतिक आपदाओं --भूकंप, अतिवृष्टि से बाढ़, भूस्खलन, अल्पवृष्टि से सूखा, तूफान, ग्लेशियरों का पिघलना आदि का उपहार देना प्रारंभ कर दिया है । प्राकृतिक आपदाओं के रूप यह हमारे ही भविष्य का मानचित्र हैं। पर्यावरण के इस तेज़ी से बदलते मिजाज़ के कारन आज विश्व का प्रत्येक नागरिक बल्कि प्रत्येक प्राणी प्रभावित हो रहा है। इसलिए आज इस प्राकृतिक आपदा के लिए विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर कमर कस के आगे आना ही होगा।


यह सच है कि हमारे देश में परम्परा गत जीवनमूल्यों के चलते अभी भी हम पूरे विश्व के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करने में सक्षम हैं। हमारे देश में अभी पश्चिम की उपभोक्तावादी जीवनशेली का प्रभाव उतना नहीं पड़ा है जितना देश और देशवासियों के लिए घातक हो। हिंदूबहुल इस देश में अभी भी लोग शाकाहार के बड़े हिमायती हैं। मांसाहारी लोगों का प्रतिशत हमारे यहाँ विश्व के अन्य देशों के मुकाबले नगण्य ही है। साथ ही हमारे देश में लोग अभी मांसाहार में भी 'कुछ भी खा जाने वाले' अतिवादी तो हरगिज़ नहीं हैं। इसके आलावा भारत में प्रकृति से लोगों का सीधा जुडाव इसके अधिसंख्य गावों देहातों में पूर्ववत बना हुआ है। ये सारे सकारात्मक रुझान कई बार वैश्विक सर्वेक्षणों में सामने आते रहे हैं। नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी के हाल के एक सर्वेक्षण में यह खुलासा हुआ है। इस सोसायटी के ग्रीन इंडेक्स में भारत को पहला स्थान मिला है। लेकिन साथ ही इस बात से भी आगाह किया गया है कि आने वाले समय में भारत को उपभोक्ता बाज़ार के रूप में विश्व की बड़ी बड़ी कम्पनियाँ अपना सबसे बड़ा लक्ष्य मान कर उसके परंपरागत जीवनमूल्यों के लिए सबसे बड़ी चुनोतियाँ बन जाएँगी। यदि भारत के लोगों के सोच में भी वे पश्चिम के उपभोक्तावाद का ज़हर घोलने में सफल हो जाते हैं, तो विश्व को प्रकृति के इस निरंतर क्षरण से कोई शक्ति नहीं रोक सकती। ...अफ़सोस इस बात का है कि हमारी नई पीढी इस उपभोक्तावाद के चुंगल में तेज़ी से फंसती भी जा रही है। नए तकनिकी अविष्कारों का आकर्षण और उन्हें खरीद पाने की क्षमता उन्हें इस दलदल में धकेल रही है। साथ ही अपने परंपरागत जीवनमूल्यों के बारे में जानने का भी कोई ख़ास आकर्षण उनमें नहीं बचा है।

सच है कि परम्परा के साथ आधुनिकता का भी सहज आकर्षण होता है। नयी तकनीकों के प्रति आकर्षण और उन्हें अपनाने की ललक मनुष्य में स्वाभाविक रूप से होती ही है। लेकिन इस बारे में पूरी समझ होते हुए कि आने वाले समय में इन सब के मिले-जुले प्रभाव से हमें क्या नुकसान होने वाला है, हम तात्कालिक रूप से बड़े से बड़ा जोखिम उठाने से भी नहीं बचना चाहते। हमें पता है कि मोबाईल के लाभ के साथ क्या क्या नुकसान हैं, हमें पता है कि दूसरी तकनीकों के लिए हम निरंतर क्या कुछ खोते चले जा रहे हैं, लेकिन हम सोचते हैं कि एक अकेले मेरे करने से क्या घट-बढ़ जाएगा। इसके लिए हम सरकार को भी बड़ा दोषी सिद्ध करना चाहते हैं।
वास्तव में आज हम नयी पीढी को भी इसके लिए दोष नहीं दे सकते क्यों कि कहीं न कहीं इसमे पिछली पीढी की भी महत्व पूर्ण भूमिका रही है। आज की पीढी को तो आने वाली पीढी के लिए जवाबदेह ठहराया जाएगा। क्या यह श्रंखला इसी प्रकार चलती रहेगी।

भारत को उसके आदर्श जीवन मूल्यों के कारन ही विश्व गुरु की उपाधि दी जाती रही है। इधर पुनः इस प्रकार की भविष्यवानिया होती रही हैं कि भारत फ़िर एक बार विश्व के सामने एक उच्च आदर्श प्रस्तुत करके अपना वह जगद्गुरु का पद पुनः प्राप्त करेगा। इस बात का हम सभी भारत वासियों को गौरव होना चाहिए । साथ ही हमें भरसक प्रयास करने चाहियें कि हम विश्व के भविष्य के लिए सबसे बड़ी चुनोती - पर्यावरण के संतुलन के लिए आज से ही आगे आयें। क्यों कि पर्यावरण के भविष्य पर ही आज हम सब का, पूरे विश्व का भविष्य टिका है।

Tuesday, May 26, 2009

आज का वेदान्त विचार


मानव जीवन की सार्थकता है - सेवा और साधना

मानव जीवन की सार्थकता क्या है? क्या यह जीवन भोग के लिए है, अथवा सेवा और साधना के लिए है। हमें अपने जीवन को लोक कल्याण के कार्यो में लगाते हुए जीवन के सत्य को समझने की कोशिश करनी चाहिए। जीवन हमें मिला किसलिए है? खाने-पीने और इस सारे उपभोग के लिए दिन-रात भाग-दौड़ कर उपक्रम करने के लिए ? नहीं, इतने भर के लिए तो कदापि नहीं। हम ईश्वर की भक्ति करते हैं तो वह भी उपभोग की वस्तुएं मांगने के लिए। क्या ईश्वर की भक्ति मात्र अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए करके हम उस महान ईश्वरीय सत्ता का अपमान नहीं करते हैं, जिसने हमें बिना मांगे अपनी तमाम निधियों से नवाजा है? यह तो सम्भव है कि हमें सत्य का ज्ञान न हो, लेकिन यह सम्भव नहीं कि हम पराये दुःख को भी न भांप सकते हों। ईश्वर ने हमें यह काबलियत दी है। हम दुखी होते हैं तो हमें दूसरे के दुःख का भी पता होता है। लेकिन प्रायः हम उसकी ओर से आँखें मूंदे अनजान बने रहते हैं। हमारे पास यह तर्क भी हो सकता है कि हम आख़िर सबके लिए तो कुछ नहीं कर सकते, अथवा उसके लिए जो कुछ करेगा ईश्वर ही करेगा। हम यह नहीं मान पाते कि हमें ही शायद ईश्वर ने इस बड़े कार्य के लिए चुना हो। क्या हमें ऐसा सौभाग्य पाना चाहते हैं? सेवा और साधना का मार्ग कितने लोग अपनाते हैं। इस महा मार्ग पर चलने का सौभाग्य कितने लोगों को मिल पता है? याद रखें सत्य के मार्ग पर चलने वाला कभी दु:खी नहीं होता। भगवान की उस पर निरंतर कृपा रहती हैं। इसके लिए हमें अपना घर परिवार छोड़ने की भी आवश्यकता नहीं है। सेवा और साधना परिवार में तथा समाज में रहकर ही करनी चाहिए। मानव जीवन सांसारिक उपभोग के साथ सेवा और साधना के लिए भी है। आइये धर्म के इस महामार्ग पर चलते हुए वेदान्तिक क्रांति की इस नई धारा के लिए तैयार हो जायें।

Friday, May 15, 2009

वेदांत दर्शन क्या है?

वेदान्त दर्शन हमारे देश में किसी भी काल में जितने दार्शनिक सम्प्रदाय, मत मतान्तर हुए हैं, वे सभी वेदान्त दर्शन के अन्तर्गत आते हैं। न केवल हमारे देश में अपितु विश्व में कहीं भी जो दार्शनिक विचारधारा विकसित होती है, वह वेदांत दर्शन के बुनियादी आधारों पर ही विकसित हो सकती है। वेदांत स्वयं सभी प्रकार की मत भिन्नताओं को उनकी समग्रता में स्वीकार करता है। वह कोई धर्म या ऐसा संप्रदाय नहीं है जो किन्हीं निर्धारित धार्मिक सीमाओं में कार्य करता हो। अपितु वह तो एक दार्शनिक प्रणाली है, जो जीवन की लोकिक और पारलोकिक समझ को विकसित करके हमें अनुभूति जगत से जुड़ने की क्षमता से संपन्न करती है। स्वयं वेदांत की कई प्रकार की व्याख्याएँ होती रही हैं। वेदांत जैसे समग्र दर्शन को समझने-समझाने के लिए यह आवश्यक भी है।
आदि शंकराचार्य के बाद से वेदांत पर कई व्याख्याएँ देखने को मिलती हैं। उनसे पहले भी वेदांत को वैदिक और उपनिषद काल से अनेक प्रकार से व्याख्यायित किया गया है । ये सभी प्रगतिशील व्याख्याएँ रही हैं। ऐसा माना जाता है कि प्रारम्भ में व्याख्याएँ द्वैतवादी हुईं, अन्त में अद्वैतवादी। अद्वैत वेदांत को वेदांत दर्शन की पराकाष्ठा कहा जा सकता है।
वेदान्त का शाब्दिक अर्थ है ‘वेद का अन्त’। वेद हिन्दुओं के आदि धर्मग्रन्थ हैं। पाश्चात्य विद्वानों की अधिकांश व्याख्याओं के कारन ‘वेद’ को केवल रिचाओं और कर्मकांड तक ही सीमित समझा जाता है। किन्तु अब भारत में इस विचारधारा में निरंतर संशोधन होता गया है। अब भारत में वेद और वेदान्त को अलग नहीं समझा जाता है। वस्तुतः आप किसी चीज़ को उसके अंत से काट कर उसकी समग्रता में नहीं देख सकते। जीवन का भी 'अंत' किसी एक दिन में अचानक नहीं होता। किसी भी चीज़ के अंत तक पहुँचाना एक पूरी प्रक्रिया के तहत होता है।
यह सही है कि वेद दो भागों में बांटे जा सकते है-कर्मकाण्ड तथा ज्ञानकाण्ड। कर्मकाण्ड के अन्तर्गत ब्राह्मणों की संहिताओं के मन्त्र तथा अनुष्ठान आते है। इससे भिन्न जिन ग्रंथों में आध्यात्मिक विषयों पर विवेचनाएँ है, उन्हें उपनिषद् कहते हैं। उपनिषद् ज्ञानकाण्ड के अन्तर्गत हैं। कुछ उपनिषदों की रचना वेदों से पृथक भी हुई है, लेकिन सभी की नहीं । कुछ उपनिषद् तो ब्राहमण ग्रंथों के अन्तर्गत आते हैं। संहिताओं या ऋचाओं के ही अन्तर्गत कम से कम एक उपनिषद् तो पाया ही जाता है। इन सबके आलावा भगवान् कृष्ण की अमर वाणी गीता को भी उपनिषद् कहा जाता है- गितोपनिषद। वेदांत सूत्रों के रचयिता महर्षि व्यास के वेदांत ग्रन्थ को वेदांत का प्रमुख प्रस्थान मानते हुए भी उपनिषद् नहीं कहा जाता। किन्तु सामान्यतः उपनिषद् शब्द का प्रयोग वेदों में निहित दार्शनिक विवेचनाओं के लिए ही होता है। कुछ उपनिषदों को आरण्यक में भी पाया गया हैं। प्रायः उपनिषदों की संख्या 108 मानी जाती है। यह ठीक है कि इनका समय निर्धारण नहीं किया जा सकता, किन्तु निश्चित रूप से अधिकांश बौद्धमत से प्राचीन हैं। कुछ गौण उपनिषदों में ऐसे विवरण हैं, जिनसे उनके अपेक्षाकृत आधुनिक होने का संकेत मिलता है, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं हो जाता कि वे उपनिषद् अर्वाचीन हैं। षड़ दर्शनों में अन्तिम वेदांत दर्शन, जो व्यास कृत है, पूर्वप्रतिपादित दर्शनों की अपेक्षा वैदिक विचारों पर अधिक आधारित है। इसे सांख्य और न्य़ाय जैसे प्राचीन दर्शनों के बीच उत्तर मीमांसा या वेदान्त दर्शन के रूप में रखा गया है। इसलिए इसे विशेष रूप से वेदान्त दर्शन कहा जाता है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार व्यास-सूत्र ही वेदान्त दर्शन का आधार माना जाता है। यही वेदान्त मत का प्रामाणिक ग्रन्थ उत्तर मीमांसा है। विभिन्न भाष्यकारों ने व्यास के सूत्रों की व्याख्या विभिन्न प्रकार से की है। सामान्यत: अभी भारत में तीन प्रकार की प्रचलित वेदान्तिक व्याख्याएँ हैं। इन व्याख्याओं से तीन दार्शनिक पद्धतियों का विकास हुआ है-द्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा अद्वैत। अधिकांश भारतीय द्वैत एवं विशिष्टाद्वैत के अनुयायी हैं। अद्वैतवादियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। लेकिन सभी वेदान्ती तीन तथ्यों पर एकमत हैं। ये सभी ईश्वर को, वेदों के श्रुत रूप को तथा सृष्टि-चक्र को मानते हैं। वेदों के बारे में संक्षेप में ऊपर कहा जा चुका हैं। सक्षेप में सृष्टिसंबंधी मत इस प्रकार है। समस्त दृष्टि- गत जड़ पदार्थ आकाश नामक मूल जड़-सत्ता से उद्भूत हुआ है। जीवन की समस्त चेतन शक्तियाँ आदि-शक्ति प्राण से उद्भूत हुई हैं। आकाश पर प्राण का प्रभाव पड़ने से सृष्टि का विस्तारण होता है। तत्पश्चात वह निरंतर बढ़ता ही रहता है। जो बढ़ता रहता है- वही ब्रहम है।
इस प्रकार वेदान्त की अनेक व्याख्याएँ पाई जाती हैं। इसके विचारों की अन्तिम अभिव्यक्ति व्यास के दार्शनिक सूत्रों में हुई है। अति प्राचीन काल में ही वेदान्त के व्याख्याकार तीन प्रसिद्ध हिन्दू सम्प्रदायों में विभक्त हो गये थे -द्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा अद्वैत । अति प्राचीन व्याख्याएँ तो अब लुप्त प्रायः हो गयी हैं, किन्तु मध्य युग में बौद्ध धर्म के ह्रास के बाद शंकर, रामानुज तथा मधवा ने उनका पुनरुद्धार किया है। शंकर ने अद्वैत को, रामानुज ने विशिष्टाद्वैत को तथा मध्व ने द्वैत को पुन: संस्थापित किया है इन सभी मतों में अनेक स्थूल भिन्नताएं होने के बावजूद उनका मूल दार्शनिक आधार एक ही है। सभी मतों में जीवन की सनातन जिज्ञासाएं शाश्वत मूल्यों के बीच ही परिष्कार पाती हैं।
वेदांत की इस बाह्य दार्शनिक संरचना के आलावा उसके आतंरिक मर्म को जानने के लिए उसकी अलग से विवेचनाएँ हैं । इस सम्बन्ध में अलग से कहा जाएगा।
-shri vijay vijan 




Thursday, April 30, 2009

पुण्य स्मरण: आदि शंकराचार्य

हिंदू धर्म के आदि ध्वजा-वाहक थे

आदि शंकराचार्य - श्री विजय विजन


भारतीय दर्शन के अद्वैत सिद्धांत में आत्मा एवं ब्रह्मके संबंध को व्यावहारिक एवं बौद्धिक आधार प्रदान करके जगदगुरु आदि शंकराचार्य ने न केवल हिंदू धर्म को पुनर्प्रतिष्ठित करने में अहम भूमिका निभाई अपितु देश भर की लम्बी यात्राओं के माध्यम से चार मठों की स्थापना कर वेदों तथा वेदांत की प्रतिष्ठा फिर पूरे विश्व में कायम की।
केरल के कलाडीमें वैशाख शुक्ल पंचमी को उनका जन्म हुआ था। बालक शंकर के बाल काल में ही उनके पिता का निधन हो गया। माता की देखरेख में उनका पालन पोषण हुआ। सिर्फ आठ साल की उम्र में ही वे वेदों के ज्ञाता हो गए थे। ८ वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि से लोगों का चकित कर दिया था, तथा अपनी माता से हठ करके संन्यास ग्रहण कर लिया था।उस काल में भारतीय जनमानस में बौद्ध एवं जैन धर्म का विशेष प्रभाव था। दूसरी ओर हिंदू धर्म अनेक छोटे-छोटे मतों ओर संप्रदायों में विभाजित हो रहा था। समाज को दिशा देने वाले किसी ऐसे जीवन-दर्शन का आभाव था, जो समाज को एक सूत्र में बाँध सके। समाज में अनीश्वर-वादी दर्शन तथा चार्वाक-वादी दर्शनों के प्रभाव से लोग धर्म-विमुख ओर स्वछन्द हो रहे थे । ऐसे समय में जगदगुरु शंकराचार्य ने सभी पंथों, मठों और संप्रदायों तथा सभी दार्शनिक सिद्धांतों को एक ध्वजा के नीचे लाने का विलक्षण प्रयास किया। अपने प्रयासों में उन्हें अद्भुत सफलता भी मिली। उन्होंने हिंदू धर्म को विश्व मंच पर पुनः प्रतिष्ठित किया। वेदों के माध्यम से हिंदू धर्म की पुनः स्थापना के बाद उन्होंने विश्व को अद्वैत वेदांत के मर्म से परिचित कराया। उनके द्वारा आरम्भ की गई वेदांत की अध्यात्म यात्रा वर्तमान में भी विश्व मानस को आलोकित कर रही है। देश भर में घूम घूम कर उन्होंने वेद-वेदांत के प्रति लोक में रूचि जागृत की तथा लोगो को धर्म मार्ग पर प्रवृत होने का न केवल संदेश ही दिया, अपितु अद्भुत प्रेरणा भी दी।शंकराचार्य के समय में वैदिक धर्म की स्थिति अच्छी नहीं थी। समाज में वेद-निंदक समुदाय वेदों की निरंतर निंदा में लगे थे। आदि शंकराचार्य ने इस स्थिति में आमूलचूल बदलाव के लिए शास्त्रार्थ के माध्यम से बौधिक वेद-निंदक समुदायों को चुनोती दी थी। अपनी विलक्षण मेधा से उन्होंने अनेक वेदनिन्दक और दूसरे धर्म विरोधी विद्वानों को ललकार कर परास्त किया था। वैदिक धर्म की पुर्नस्थापनाके लिए उन्होंने विभिन्न पीठों और अखाडों की स्थापना की तथा अपने शिष्यों को धर्म विजय के लिए प्रशिक्षित किया। आदि शंकराचार्य ने सिर्फ 32 साल की छोटी सी आयु में ही वैदिक धर्म का पुनुरुद्धार किया और वेदों की प्रतिष्ठा स्थापित की । आत्मा एवं ब्रह्मके संबंध में उनका अद्वैत वेदांत का सिद्धांत अद्भुत और अद्वितीय है। इसके साथ ही उन्होंने अनेक लोक प्रिय काव्य और धर्म ग्रंथों का सम्पादन भी किया। उन्होंने भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्रों के साथ साथ उपनिषदों पर भी अद्वितीय भाष्य लिखे।
केवल 32वर्ष की उम्र में शंकराचार्य ने उन बौद्धिक ऊंचाइयों को छुआ, जिन पर आज भी भारतीय धर्म मानस गर्व करता है। उनकी जयंती के अवसर पर उन्हें शत-शत नमन।

Thursday, March 5, 2009

Release of Vedant Mandalam magazine, issue 10-11

Shri Vijan : Singing a Bhajan

Shri Vijan with Swami Vivekananda Saraswatiji

Swamiji & Shri Vijan
Swamiji releasing the Vedant Mandalam
Release of Vedant Mandalam magazine
by the eminent citizens Shri Gopesh Goswamiji
watching the magazine

On the holy occasion of Maha Shivratri Parva, a 21 Kundiya Yajya
was organized by Shri Gauri Shankar Mandir Trust, Greater NOIDA
on 22-23rd Feb, 2009.
On this very occasion the 10-11th issue of Vedant Mandalam quarterly was also released by the eminent cultural and religious personalities from Delhi NCR. This very issue of Vedant Mandalam magazine was based on environmental awareness.
An exhibition-cum-sale of older issues of Vedant Mandalam magazine was also arranged by the VM trust. The income from the sale was offered to the Mandir trust. Swami Vivekananda Saraswati, Acharya Gopesh ji Goswami and others blessed the
VM trust for its devotion
towards the society.
Among the others Shri Vijay Vijan, Founder Trustee VM Trust and Editor Vedant Mandalam magazine, joined the program. Shri Devendra Kumar Mittal, Trustee Shri Gauri Shankar Mandir Trust and Trustee & General Secretary, VM Trust organized and conducted the program.

Thursday, February 19, 2009

See Green : See Life


Just Think...

Where do we think the Environment Is?

Can we hear the Eco???????

Hear the trees
f a l l i n g.

To sit in the shade, We have to save paper First,

Save Paper, Save Tree, Save Planet.

Friday, January 30, 2009

वेदान्तिक विचारलेख

अस्तित्व की परतों को खोलें ।
श्री विजय विजन
मनुष्य का अस्तित्व कई परतों से बना होता है। अधिकांश मनुष्य अपने को शरीर के आलावा कुछ नहीं समझते। वे दूसरे को भी शरीर ही समझते हैं। एक शरीर और एक उसका नाम, बस। उन्हीं से सम्बन्ध बनते हैं, और वहीं आनंद ढूँढ़ते रहते हैं। कुछ लोग भावना के स्तर पर मन, बुद्धि , विवेक की बातें करते हैं। यह उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा नजर आता है। आप कहते हैं कि फलां व्यक्ति का मन निर्मल है। फलां व्यक्ति बुद्धिमान है, अथवा फलां व्यक्ति विवेकवान है। ऐसे में आप दूसरे के मन बुद्धि विवेक को समझाने का प्रयास करते हैं। उसका सम्मान भी करते हैं।
लेकिन हम सभी में आत्मतत्व या आत्मा के प्रति एक गहरा विश्वास होने के बावजूद भी हम उसे गहराई के साथ अनुभव नहीं कर पाते । कोई शब्दों में उसका विश्लेषण करे भी तप उसे 'आत्मसात' करना इतना आसान नहीं होता । अस्तित्व की इस आत्म रूपी ग्रंथि को खोलना सभी के लिए आसान नहीं होता। क्यों लगता है कि सिद्धांत से तो ठीक है, लेकिन व्यवहार में कुछ हमारी पहुँच के बाहर है।

मन विचिलित होता है। बुद्धि में विकार उत्पन्न होते हैं। विवेक सदैव स्थिर नहीं पाता, और ये सब हमारे व्यक्तित्व में झलक आता है। हम खुश होते हें, अथवा दुखी। हम किसी कार्य में सफल होते हैं अथवा असफल। हम किसी का मार्गदर्शन करते हैं अथवा किसी का मार्गदर्शन चाहते हैं। लेकिन आत्मा का स्वरुप हमारे अनुभव की पकड़ में इतने सीधे नहीं आता। जिन लोगों के व्यकतित्व में वह झलकता है, वे खुश या नाखुश नज़र शायद न आयें। वे सफलता और असफलता से प्रभावित भी न होते हों। वे कर्म का स्वाद भी नहीं लेते बैठते। कर्म अवश्य करते हैं, और कर्मों से ही उनका जीवन प्रकाशित होता है।
तो क्या यह आत्मतत्त्व सभी के द्वारा साधने की चीज़ नहीं? कहा तो यही जाता है कि कोई बिरला ही ही इसे जन पाता है। लेकिन कहा यह भी गया है कि सभी का अन्तिम लक्ष यही है। और इसका संधान भी हमें स्वयं ही करना होगा। आदि शंकराचार्य ने विवेक चूडामणि में कहा है-
अविद्या काम कर्म आदि पाश बन्धं विमोचितुम।
क:श्क्नुयाद्वीनात्मानं कल्प कोटिशतैरपि॥
अर्थ : हमारे अविद्या, कमाना और कर्म आदि के बन्धनों को सौ करोड़ कल्पों में भी कोई नहीं खोल सकता। यह पाश हमें स्वयं ही खोलना होगा।
कई बार हम मानवीय विकास की प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए पाते हें कि वर्तमान युग तक आते आते मनुष्य जाती ने अन्तर - बाहर के विभिन्न तलों पर भरपूर विकास किया है। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं का जबरदस्त विकास हुआ है। वह पहले से अधिक विवेकवान होता गया है। लेकिन क्या वह किसी रूप में पहले से अधिक आत्मवान भी हो पाया है? शायद नहीं। पर इससे पहले हम यह सोचें कि क्या ऐसा सम्भव भी है? मनुष्य आत्मवान कैसे हो सकता है? कैसे हम किसी व्यक्ति को देख कर जन सकते हैं कि वह कितना आत्मवान है? साथ ही यह भी विचारणीय हो जाता है कि क्या यह भौतिक विकास की किसी इससे भी आगे की अवस्था में सम्भव होगा, या उससे पूर्व भी इसकी उपलब्धि का कोई उपाय है?
वास्तव में आत्म दर्शन का अर्थ है स्वयं को देखना। स्वयं को हम कहाँ देख सकते हैं? दर्पण में या अपनी कल्पना में । या फिर हम दूसरे की आंखों में स्वयं को देखना चाहते हैं। यह आत्मदर्शन नही है। आत्मदर्शन दूसरे की आंखों में नही, दूसरे में स्वयं को देखना है। और किसी एक व्यक्ति या जाती में नहीं, सभी में स्वयं को देखना। जब दूसरा भी मेरा आत्म बन कर मेरे सामने होगा तसब वह हमें उतना ही प्रिय होगा जितने हम स्वयं को। और वास्तव में तब तो कोई दूसरा होगा ही नहीं। और जब एक ही बचा तो फिर बचा कौन? यही परम ज्ञान है, श्रेष्ठ ज्ञान है। मन बुद्धि, विवेक की परम अवस्था। जहाँ ये सब साधन स्वयं उस आत्मतत्व में विलीन हो जाते हैं। याज्ञवल्क्य कहते हैं-
ईज्याचारदमाहिंसा दान्स्वाध्याय कर्मणाम ।
अयमतुपर्मो धर्मोयद योगेन आत्म दर्शनम॥
अर्थ : यज्ञ, सदाचार, इन्द्रिय संयम, अहिंसा, दान और स्वाध्याय, ये सब तो धर्म हेतु हैं ही, किंतु सभी में आत्म भावः रखना परम धर्म अर्थात उत्तम योग है।
अब, यह बात इस रूप में तो सबके द्वारा कई बार कही-सुनी जाती है, तो भी इसका संधान सम्भव क्यों नही हो पाता ? और जब तक दावा स्वयम न पी ली जाए, रोग से मुक्ति कैसे हो सकती है? शब्दों की बाजीगरी से तो स्वास्थय लाभ होने से रहा।
न गच्छति विना पानं व्यधिरो षध शब्दतः ।
विना परोक्षनुभावं ब्रह्म शब्देर्ण मुच्यते ॥
अर्थ : "औषधि " शब्द के उच्चारण से रोग मुक्ति नहीं और " ब्रह्म " शब्द के उच्चारण से जीवन मुक्ति नहीं।
यही आत्मभाव का आदर्श वेदांत (उपनिषदों) में सर्वथा निराले रूप में दृष्टिगोचर होता है। जीव अपने कर्मों के स्वादिष्ट फलों से जब अघा जाता है, तब वश भीतर की ओर देखता है। जहाँ उसका आत्म स्वरुप निश्छल शांत है। और तब वह उसकी और खिंचा चला जाता है। उसके लिए आत्मानुसंधान अवश्यम्भावी हो जाता है। वह जान जाता है कि वह स्वयं आत्मतत्व है। अपने जीवन को हम भी आत्मानुसंधान से खोज कर देखें।

Tuesday, January 27, 2009

आज का वेदांत विचार

आत्मदर्शन
आत्म दर्शन का अर्थ है स्वयं को देखना। स्वयं को हम कहाँ देख सकते हैं? दर्पण में या अपनी कल्पना में । या फिर हम दूसरे की आंखों में स्वयं को देखना चाहते हैं। यह आत्मदर्शन नही है। आत्मदर्शन दूसरे की आंखों में नही, दूसरे में स्वयं को देखना है। और किसी एक व्यक्ति या जाति में नहीं, सभी में स्वयं को देखना। जब दूसरा भी मेरा आत्म बन कर मेरे सामने होगा तब वह हमें उतना ही प्रिय होगा जितने हम स्वयं को। और वास्तव में तब तो कोई दूसरा होगा ही नहीं। और जब एक ही बचा तो फिर बचा कौन? यही परम ज्ञान है, श्रेष्ठ ज्ञान है। मन बुद्धि, विवेक की परम अवस्था। जहाँ ये सब साधन स्वयं उस आत्मतत्व में विलीन हो जाते हैं।

Wednesday, January 21, 2009

" वेदांत मण्डलं" एक विज़न - एक मिशन - एक परिचय

प्रिय आत्मन,
वेदांत मण्डलं अभी अपने आरंभिक दौर में है लेकिन इसका एक वस्तुनिष्ठ उदेश्य है। पहली बात यह कि वेदांत मण्डलं एक त्रैमासिक पत्रिका के अलावा ट्रस्ट के रूप में संगठित एक आध्यात्मिक और चेरिटेबल संस्था है। इसका अपना एक विज़न और एक मिशन है। आरम्भ से ही हम इस मिशन के फलीभूत होने का आकलन करके चल रहे हैं कि कैसे यह वैश्विक स्तर पर वेदान्तिक जीवनदर्शन और मूल्यों को पुनः प्रतिस्थापित कर सकेगा, जिसकी कि आज के समय में अत्यन्त आवश्यकता है।
दूसरी और ज्यादा अहम बात यह है कि "वेदांत मंडलम" का सांस्थानिक और संगठनात्मक स्वरुप आप सबके सहयोग से अपने वास्तविक रूप में आ रहा है। आप सबके लिए यह एक खुला मंच है। आप सबका आह्वान है, आप सब आमंत्रित हैं कि आयें और इस मंच का सदुपयोग हमारे साथ मिलकर उन जीवन मूल्यों की प्रतिस्थापना के लिए करें जो भारतभूमि ने पूरे विश्व को आदिकाल से प्रदान किए हैं।
आज सब जगह वैश्विक जनजागरण की बात की जा रही है। न केवल संस्कृतियों अथवा धर्म-अध्यात्म के स्तर पर यह एकता अनुभव की जा रही है, अपितु ठोस भौतिक और बाजारवादी स्तर पर भी इसका प्रभाव दीखता है, और ज्यादा स्पष्ट दीखता है। यह एक शुभ लक्षण है। वैश्विक समुदाय इस एकता के भाव को और अधिक प्रगाढ़ करना चाहते हैं। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, और स्वाभाविक रूप से एक वेदान्तिक परिणिति है। लेकिन शायद सभी को यह न मालूम हो कि एक व्यक्ति के स्तर पर इस मिशन में उनका क्या योगदान हो सकता है। "वेदांत मंडलम" इस बड़े कार्य में वैश्विक सामुदाय को अपना सहयोग प्रदान कर सकता है।
इसके लिए आपको यह करना है कि :
१। वेदांत मंडलम से जुडें ।
२। स्वयं वेदान्तिक जीवन मूल्यों को अपनाएं।
३। देश और देश की सीमाओं के बहार विश्वमानस को वेदान्तिक जीवनमूल्यों से परिचित कराने के लिए संकल्प के साथ आगे आयें।
४। अपने-अपने क्षेत्र में इस आदर्श से लोगों को परिचित कराएँ, इससे जोडें।
ध्यान रहे कि आज विश्वमेधा अपनी चेतना की उन ऊंचाइयों पर है जहाँ एक नए विश्वमानव का जन्म हो रहा है। विश्वचेतना उसे अपने अंक में लेने को प्रशस्त है। इस प्रक्रिया को हमारी सनातन परम्परा में वेदांत का महामार्ग अभिष्ट है। यही हमारे समय की सभी वैश्विक और वैचारिक समस्याओं का समाधान भी है।
साथ ही, "वेदांत मंडलम" के सतत प्रसार के लिए भी आपका सहयोग हमें चाहिए। आप अपने अनुभवों से, अपने जीवन दर्शन को भी सहज शब्दों में ढाल कर हमें भेजें। आप हमें यह भी सूचित कर सकते हैं कि आप अपने स्तर पर किस रूप में इस ज्ञानयज्ञ से समाज को लाभान्वित करने में हमारे सहयोगी हो सकते हैं।
ॐ तत्सत।

Monday, January 19, 2009

'वेदांत मंडलम' ट्रस्ट (रजी.)

ट्रस्ट के उद्देश्य :

१। धर्म, जाति, रंग, देश के भेद-भाव के बिना वैश्विक जनमानस में वेद-वेदांत के एकात्म भाव एवं अन्य लोकोपयोगी पक्ष का प्रचार प्रसार करना।

२। नियमित सत्संगों, प्रवचनों, एवं जनजागृति कार्यक्रमों के माध्यम से , सुनिश्चित वेदान्तिक परम्परा का प्रचार प्रसार करते हुए वेदांत-सम्मत जीवन-चर्या को नए सन्दर्भों में लोकप्रिय बनाना।

३। संस्था की सुनिश्चित वेदान्तिक परम्परा के प्रचार प्रसार के लिए शिक्षार्थियों, स्वयंसेवकों, प्रचारकों को तैयार करना। रचनात्मक व्यक्तित्व का विकास। इस कार्य के लिए वेदान्तिक विद्यालयों की स्थापना करना।

४। नूतन एवं पुरातन वेदान्तिक साहित्य का अनुसन्धान, संग्रहण एवं शोध।

५। 'वेदांत मण्डलं' नाम से नियमित/आवधिक पत्रिका एवं अन्य लोकोपयोगी साहित्य का प्रकाशन।

६। समय-समय पर सांस्कृतिक संगोष्ठियों/ सम्मेलनों के माध्यम से मनीषियों को संस्था के मंच पर सम्मिलित एवं सम्मानित करना।

७। भारतीय संस्कृति एवं जीवनमूल्यों के प्रति वैश्विक जनजागरण के लिए कृतसंकल्प व्यक्तियों एवं उपयोगी संसाधनों की खोज। संस्था द्वारा निर्मित वस्तुओं से अर्जित आय से संस्था को सुदृढ़ आधार प्रदान करना। इन संसाधनों से व्यक्ति, राष्ट्र एवं समस्त विश्व के पुनर्निर्माण में रचनात्मक योगदान प्रदान करना।

८। सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए समाज में भ्रातृत्व आदि गुणों का प्रसार करना। इन कार्यों की स्थापना के लिए उपयुक्त संस्थाएं स्थापित करना।

९। इन उदेश्यों की पूर्ति के लिए व्यक्तियों तथा संस्थाओं में ऐसी उपयुक्त शर्तों पर निवेश करना जिससे संस्था को अपने उदेश्यों की पूर्ति के सहायता मिल सके।

१०। प्रकृति संरक्षण के लिए समाज में पर्यावरण-प्रेम एवं पारिस्थितिकी के प्रति जागृति पैदा करना।

११। विभिन्न योग पद्धतियों के तहत शारीरिक , मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य लाभ के लिए इच्छुक एवं सुपात्र लोगों को शिक्षित करना।

१२। योग्य विद्वानों तथा आचार्यों को सम्मान, पुरुस्कार एवं विद्यार्थियों को छात्रवृतियां प्रदान करना।

१३। होनहार किंतु अभावग्रस्त बच्चों व अनाथों के पुनर्वास के लिए स्वतंत्र रूप से संस्थाएं स्थापित / संचालित करना एवं अन्य संस्थाओं के सहयोग से कार्य करना।

१४। 'वेदांत मण्डलं' के उदेश्यों की पूर्ति के लिए कोई भी उपयुक्त कार्य करना। ऐसे कार्यों के लिए संस्था अपने संसाधनों, निधियों में से व्यय कर सकेगी बशर्ते की 'वेदांत मण्डलं' के सारे लाभ व चल अचल सम्पति का उपयोग इस अभिलेख में उल्लिखित उदेश्यों के लिए ही हो, तथा उसका कोई भी अंश किसी भी व्यक्ति को, संस्था के नए पुराने सदस्यों या उनके प्रतिनिधियों को अन्य उदेश्यों के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जाएगा। संस्था का कोई भी व्यक्ति संस्था की चल अचल सम्पति पर कोई दावा नहीं करेगा, या इसकी सदस्यता के आधार पर किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं करका। संस्था के किसी भी लाभ का भुगतान संस्था के वर्तमान अथवा नी वर्तमान सदस्यों को या इन सदस्यों के माध्यम से दावा करने वाले एक या अधिक व्यक्ति को नहीं किया जाएगा.

Friday, January 16, 2009

Our Initial Trustees











Shri Vijay Vijan
Founder Trustee & President



















Shri Devendra Kumar Mittal
Trustee & General Secretary










Shri Sanjeev Jindal
Trustee & Treasurer




Smt. Ritu Vijan
Trustee

वेदांत देता है एकात्म का भाव - अनुभव करें आप


  • यह समस्त चराचर सृष्टि एक ही तत्त्व से निर्मित है।
  • समस्त जड़ चेतन में एक ही तत्त्व क्रियाशील है।
  • हम सब इसी एक तत्त्व का अंश हैं। इसी एक तत्त्व का विस्तार हैं।
  • जब हम अपने अहम् के कारण इस भाव को अनुभव नहीं कर पाते तभी अपने और पराये के प्रति पूर्वाग्रहों से पीड़ित होते हैं।
  • इस एकत्व के भाव के साथ हमें इस संसार में अपनी अपनी भूमिकाओं को निभाने के लिए आगे बढ़ना है।
  • आइये, इस भावना के साथ हम मानवता की सेवा के लिए आगे बढें।
  • आइये, इसी महान भावना के साथ जीव- जंतुओं, वृक्षों-नदियों और समस्त प्रकृति के संरक्षण के लिए सामने आयें।
  • आइये, छोटे-छोटे विषयों को भुला कर हम अपने अहम् को शांत करें।
  • अपने अपने स्तर पर हम परस्परता का भाव बढाएँ । आनंद का आदान-प्रदान करें।
  • हम सृष्टि के विस्तार का एक कमजोर पक्ष होने से बचें।
  • शक्ति सम्पन बनें और शक्ति का सदुपयोग विकास के लिए करें, विनाश के लिए नहीं।
  • विकास भौतिक हो, विकास आध्यात्मिक हो। शक्ति ऊर्धव्गामी हो ।
  • आइये , इस सनातन सत्य को समझें।
  • वेदान्त का महान भारतीय आदर्श शीघ्र ही एक वैश्विक संस्कृति का सूत्रपात करेगा।
  • सहयोगी होंगे आप, मध्यम होगा "वेदान्त मंडलम" , साक्षी होगा जहाँ।